रोहित सरदाना का रविश कुमार को खुला पत्र।।

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आदरणीय रविश कुमार जी

नमस्कार.

सर, ट्विटर, फेसबुक, ब्लॉग, फेस टाइम के दौर में आपने चिट्ठी लिखने की परंपरा को ज़िंदा रखा है उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं. हो सकता है कि चिट्ठियां लिखने की वजह ये भी हो कि ट्विटर, फेसबुक पे लोग जवाब दे देते हैं और चिट्ठी का जवाब मिलने की उम्मीद न के बराबर रहती है, इस लिए चिट्ठी लिखने का हौसला बढ़ जाता हो. पर हमेशा की तरह एक बार फिर, आपने कम से कम मुझे तो प्रेरित किया ही है कि एक चिट्ठी मैं भी लिखूं – इस बात से बेपरवाह हो कर – कि इसका जवाब आएगा या नहीं.
ये चिट्ठी लिखने के पहले मैंने आपकी लिखी बहुत सी चिट्ठियां पढ़ीं. अभी अभी बिलकुल. इंटरनेट पर ढूंढ कर. एनडीटीवी की वेबसाइट पर जा कर. आपके ब्लॉग को खंगाल कर. एम जे अकबर को लिखी आपकी हालिया चिट्ठी देखी. पीएम मोदी को लिखी चिट्ठी देखी. मुख्यमंत्रियों के नाम आपकी चिट्ठी देखी. विजय माल्या के नाम की चिट्ठी देखी. पुलिस वालों के नाम भी आपकी चिट्ठी देखी.
सर लेकिन बहुत ढूंढने पर भी मैं आपकी वरिष्ठ और बेहद पुरानी सहयोगी बरखा दत्त के नाम की खुली चिट्ठी नहीं ढूंढ पाया, जिसमें आपने पूछा होता कि नीरा राडिया के टेप्स में मंत्रियों से काम करा देने की गारंटी लेना अगर दलाली है – तो क्या आपको दलाल कहे जाने के लिए वो ज़िम्मेदारी लेंगी ?
बहुत तलाशने के बाद भी मैं आपके किसी ठिकाने पर वरिष्ठ पत्रकार और संपादक रहे आशुतोष जी (जो अब आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं) के नाम आपकी कोई खुली चिट्ठी नहीं ढूंढ पाया, जिसमें आपने पूछा होता कि साल-डेढ़ साल तक स्टूडियो में हॉट-सीट पर बैठ कर , अन्ना के पक्ष में किताब लिखना और फिर उस मेहनत कूपन को पार्टी प्रवक्ता की कुर्सी के बदले रिडीम करा लेना अगर दलाली है – तो क्या आपको दलाल कहे जाने के लिए वो ज़िम्मेदारी लेंगे?
सर मैंने बहुत ढूंढा, लेकिन मैं आपके पत्रों में आशीष खेतान के नाम कोई चिट्ठी नहीं ढूढ पाया, जिसमें आपने पूछा होता कि सवालों में घिरे कई स्टिंग ऑपरेशनों, प्रशांत भूषण जी के बताए पक्षपातपूर्ण टू जी रिपोर्ताजों के बीच निष्पक्ष होने का दावा करते अचानक एक पार्टी का प्रवक्ता हो जाना अगर दलाली है – तो क्या वो आपको दलाल कहे जाने की ज़िम्मेदारी शेयर करेंगे ?
सर मैं अब भी ढूंढ रहा हूं. लेकिन राजदीप सरदेसाई के नाम आपका कोई पत्र मिल ही नहीं रहा. जिसमें आपने पूछा हो कि 14 साल तक एक ही घटना की एक ही तरफ़ा रिपोर्टिंग और उस घटना के दौरान आए एक पुलिस अफसर की मदद के लिए अदालत की तल्ख टिप्पणियों के बावजूद, वो हाल ही में टीवी चैनल के संपादक होते हुए गोवा में आम आदमी पार्टी की रैली में जिस तरह माहौल टटोल रहे थे, अगर वो दलाली है, तो क्या राजदीप जी आपको दलाल कहे जाने की ज़िम्मेदारी लेंगे?
सर मैंने बहुत तलाशा. लेकिन मैं उन सब पत्रकार (पढ़ें रिपोर्टर) दोस्तों के नाम आपकी कोई चिट्ठी नही ढूंढ पाया, जिन्हें दिल्ली सरकार ने ईनाम के तौर पर कॉलेजों की कमेटियों का सम्मानित सदस्य बना दिया. सर जब लोग आ कर कहते हैं कि आपका फलां साथी रसूख वाला है, उससे कह के दिल्ली के कॉलेज में बच्चे का एडमिशन करा दीजिए. आपका मन नहीं करता उनमें से किसी से पूछने का कि क्या वो आपको दलाल कहे जाने की ज़िम्मेदारी आपके साथ बांटेंगे ?
पत्रकारों का राजनीति में जाना कोई नई बात नहीं है. आप ही की चिट्ठियों को पढ़ के ये बात याद आई. लेकिन पत्रकारों का पत्रकार रहते हुए एक्टिविस्ट हो जाना, और एक्टिविस्ट होते हुए पार्टी के लिए बिछ जाना – ये अन्ना आंदोलन के बाद से ही देखा. लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ़ थी. मैं भी जाता था अपनी 3 साल की बेटी को कंधे पर ले कर. मैं भीड़ में था. आप मंच पर थे. तब लगा था कि क्रांतिकारी पत्रकार ऐसे होते हैं. लेकिन फिर इंटरव्यू में किरण बेदी को दौड़ाते और अरविंद केजरीवाल को सहलाते आपको देखा तो उसी मंच से दिए आपके भाषण याद आ गए.
क्रांतिकारी से याद आया, आपकी चिट्ठियों में प्रसून बाजपेयी जी के नाम भी कोई पत्र नहीं ढूंढ पाया. जिसमें आपने पूछ दिया हो कि इंटरव्यू का कौन सा हिस्सा चलाना है, कौन सा नहीं, ये इंटरव्यू देने वाले से ही मिल के तय करना अगर दलाली है – तो क्या वो आपको दलाल कहे जाने की ज़िम्मेदारी लेंगे ?
सर गाली तो लोग मुझे भी देते हैं. वही सब जो आपको देते हैं. बल्कि मुझे तो राष्ट्रवादी भी ऐसे कहा जाता है कि जैसे राष्ट्रवादी होना गाली ही हो. और सर साथ साथ आपसे सीखने की नसीहत भी दे जाते हैं. पर क्या सीखूं आपसे ? आदर्शवादी ब्लॉग लिखने के साथ साथ काले धन की जांच के दायरे में फंसे चैनल की मार्केटिंग करना ?
सर कभी आपका मन नहीं किया आप प्रणय रॉय जी को एक खुली चिट्ठी लिखें. उनसे पूछें कि तमाम पारिवारिक-राजनीतिक गठजोड़ (इसे रिश्तेदारी भी पढ़ सकते हैं) के बीच – आतंकियों की पैरवी करने की वजह से, देश के टुकड़े करने के नारे लगाने वालों की वकालत करने की वजह से, लगभग हर उस चीज़ की पैरवी करने की वजह से जो देश के बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को आहत करती हो – अगर लोग आपको दलाल कहने लगे हैं तो क्या वो इसकी ज़िम्मेदारी लेंगे ?
उम्मीद करता हूं आप मेरे पत्र को अन्यथा नहीं लेंगे. वैसे भी आपकी चिट्ठी की तरह सारे सोशल मीडिया ब्लॉग्स और अखबार मेरे लिखे को हाथों हाथ नहीं लेंगे. लेकिन आपकी राजनीतिक/गैर राजनीतिक सेनाएं इस चिट्ठी के बाद मेरा जीना हराम कर देंगी ये मैं जानता हूं. जिन लोगों का ज़िक्र मेरी चिट्ठी में आया है – वो शायद कभी किसी संस्थान में दोबारा नौकरी भी न पाने दें. पर सर मैं ट्विटर से फिर भी भागूंगा नहीं. न ही आपको ब्लॉक कर दूंगा (मुझे आज ही पता लगा कि आपने मुझे ब्लॉक किया हुआ है, जबकि मेरे आपके बीच ये पहला संवाद है, न ही मैंने कभी आपके लिए कोई ट्वीट किया, नामालूम ये कड़वाहट आपमें क्यों आई होगी, खैर).
सर आप भगवान में नहीं मानते शायद, मैं मानता हूं. और उसी से डरता भी हूं. उसी के डर से मैंने आप जैसे कई बड़े लोगों को देखने के बाद अपने आप को पत्रकार लिखना बंद कर दिया था, मीडियाकर्मी लिखने लगा. बहुत से लोग मिलते हैं जो कहते हैं पहले रवीश बहुत अच्छा लगता था, अब वो भी अपने टीवी की तरह बीमार हो गया है. शायद आप को भी मिलते हों. वो सब संघी या बीजेपी के एजेंट या दलाल नहीं होते होंगे सर. तो सबको चिट्ठियां लिखने के साथ साथ एक बार अपनी नीयत भी टटोल लेनी चाहिए, क्या जाने वो लोग सही ही कहते हों?

आपका अनुज

रोहित  सरदाना
(लेखक ज़ी न्यूज़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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