मूर्तिपूजा शुरू में हिन्दू धर्म में नहीं थी। अग्नि में होम कर दैवी शक्तियों को हविष्य प्रदान किया जाता था वैदिक और उपनिषद् काल तक। बाद में देवों देवियों की मूर्तियां बनायीं जाने लगीं। वास्तव में यह एक महान नवाचार या इन्नोवेशन था। लोगों ने महसूस किया कि ईश्वर या देवताओं को प्रतीकात्मक रूप में आँखों से देख कर अधिक सरलता से याद रखना संभव था। देवता की मूर्ति बनी तो उन्हें रखने के लिए मंदिर बने। इसप्रकार मूर्ति पूजा और मंदिरों का रिवाज़ शुरू हुआ। मूर्ति पूजा का विरोध करने वालों से गांधी ने पूछा, चर्च में जीसस और मेरी की मूर्ति क्यों रखते हो? मस्जिद में नवाज पढ़ने से क्या लाभ? कहीं भी नवाज पढ़ लो। यानि मस्जिद में जा कर या चर्च जा कर जैसे खुदा या गॉड की याद पुख्ता होती है, मेरी जीसस की मूर्ति देख कर जीज़स की बेहतर यद् आती है, बेहतर भावना मन में उठती है, वैसे ही मूर्ति देख कर भावना बहुत बेहतर बनती है। भक्ति उमड़ती है। इसलिए मूर्ति पूजा।
इससे लाभ तो बहुत हुआ, खास कर देव पूजन करने वालों को और परमेश्वर के मूर्त रूप की उपासना करने वालों को। मगर धीरे धीरे कुछ नुक्सान भी हुए। एक नुकसान तो यह हुआ कि कुछ लोग यह भूलने लगे कि ईश्वर तो अंततः निराकार और निर्विशेष (indeterminate) है, अपने विभिन्न रूपों से ऊपर और एक अर्थ में परे। दूसरा नुकसान यह हुआ कि लोग मूर्तियों से इतने लिप्त या अटैच हो गए कि जिन दिव्य सत्ताओं को वे प्रतीकित करते थे, उनसे और उनके उपदेशो से अधिक महत्त्व वे इन मूर्तियों को देने लगे। दूसरे शब्दों में वे बुतपरस्त होने लगे।
जब मूर्तियों को सिर्फ दैवी सत्ता के प्रतीक के तौर पर लेंगे तो यह मूर्ति पूजा हुई, जिसमे कोई हानि नहीं। मगर यदि मूर्ति में ही लगे रह गए, दैवी सत्ता के सन्देश भूल गए, जीवन में उनकी दिव्यता उतारने में रूचि नहीं रह गयी, तो यह हुई बुतपरस्ती। इस तरह की बुतपरस्ती का विरोध न केवल इस्लाम करता है बल्कि स्वयं हिन्दू धर्म करता रहा है।
बुतपरस्ती को अनुचित बताने का एक रोचक किस्सा महान भक्त चैतन्य महाप्रभु की जीवनी में मिलता है। जब वे वृन्दावन पहुंचे तो उनकी दशा देखने लायक थी। वे सुध बुध भूल चुके थे। कभी कृष्ण की इस मूर्ति की और दौड़ते थे कभी उस मूर्ति की तरफ। तब भगवान कृष्ण ने उन्हें मीठी फटकार लगायी। उसके बाद चैतन्य प्रसाद के लड्डुओं के प्रति आसक्ति में पड़े। एक बार भगवान कृष्ण ने उन्हें फिर उन्हें भगवन के दृश्यमान प्रतीकों से आसक्ति मुक्त होने के लिए फटकार लगायी। यह तो लोक शिक्षण के लिए चैतन्य महाप्रभु की लीला ही थी, क्योंकि वे तो स्वयं कृष्ण रूप थे। इसलिए बुतपरस्ती से ऊपर उठ कर सभी हिंदुओं को भगवान् से सीधे भी जुड़ना है और भगवान में आसक्ति विक्सित करनी है (मय्यासक्त मनाः) न कि भगवन के प्रतीक चिह्नों में, उनकी मूर्तियों में। भगवान के गीता, रामायण और अन्य ग्रंथों में दिए सन्देश और जीवन मूल्यों को जीवन में उतारना है। यह हुई ईश्वर की वास्तविक भक्ति और उनसे जुड़ाव।
लेखक – प्रदीप सिद्धार्त (अध्यक्ष भारतीय सुराज दल एवं पूर्व डी.जी.पी.अधिकारी)