करीब दो महीने पहले जब पश्चिम से चुनाव की शुरुआत हुई, तो सर्द हो रहे मौसम में चुनावी तस्वीर पर ओस की बूंदें जमी हुई थीं। बहुत कुछ धुंधला और उलझा हुआ सा था। 2017 के चुनाव में पश्चिम से भाजपा के पक्ष में चली हवा ने पूरे प्रदेश में तूफान जैसा रूप ले लिया था। पर, इस बार किसान आंदोलन से उपजे हालात और समाजवादी पार्टी-रालोद गठबंधन ने भाजपा की राह में कांटे बिछाए हुए थे।
बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, आवारा पशुओं से फसलों के नुकसान जैसे मुद्दे हवा में तैर रहे थे। पिछड़ी जातियों के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी और ओमप्रकाश राजभर सहित करीब दर्जन भर विधायकों ने भाजपा से पाला बदलकर जातीय समीकरणों को उलझा दिया था। मुस्लिमों और यादव वर्ग के एकतरफा समर्थन से सपा का एक बड़ा वोट बैंक तैयार हो गया था। इससे भाजपा के खेमे में चिंता बढ़ गई थी। पिछले चुनावों में भाजपा की बड़ी जीत में इन नेताओं और उनकी जातियों के वोटों की अहम भूमिका थी। चुनाव के ऐन वक्त पहले लगे इन झटकों से भाजपा एकबारगी बैकफुट पर भी दिख रही थी।
इन हालातों में चुनाव अभियान शुरू करते समय भाजपा के सामने तमाम मुश्किलें थीं। यही कारण था कि चुनाव घोषणा पत्र जारी होने में समय लगा। दोनों पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्र मतदान से ठीक एक दिन पहले जारी हुए। वैसे बेरोजगारी दूर करने और बिजली सहित तमाम मुफ्त कल्याणकारी योजनाओं से भरे इन चुनावी घोषणा पत्रों के कुछ खास मायने नहीं रह गए थे, क्योंकि देरी होते देख दोनों पार्टियां टुकड़ों में घोषणाएं पहले से ही करने लगी थीं। यह माना जा रहा था कि अखिलेश यादव ने पुरानी पेंशन बहाली का दांव चल कर कर्मचारियों के एक बड़े खेमे को अपने पाले में कर लिया है। बसपा और कांग्रेस के कमजोर पड़ने से विपक्ष के वोटों के बंटवारे से मिलने वाले फायदे की उम्मीदें भी खत्म हो गई थीं। ऐसे में यह तय माना जाने लगा था कि योगी सरकार के कामकाज को अब कसौटी पर आम जनता परखेगी और यही भाजपा की जीत का आधार बन सकता है।