स्वर्ण सिंह, दीपू, अनिल और बलविंदर की मौत एक साधारण घटना है. साधारण लोगों की मौत साधारण सी ही होती है. वो देशभक्ति के खाते में दर्ज नहीं होतीं.
ये चार लोग सीमा पर तैनात सेना के जवान नहीं थे जिनके नाम पर इन दिनों हिंदुस्तान की राजनीति के हर काले को सफ़ेद बताया जा रहा है. या जिनकी मौत पर शोकाकुल प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ट्वीट करते हैं और देशभक्तों की फ़ौज ख़ून का बदला दुश्मनों के ख़ून से लेने के लिए फ़ेसबुक पर जुट जाती है.
ये हमारा और आपका मल साफ़ करने वाले वो बे-शिनाख़्त जन थे जो हमारे लिए जीवन भर अदृश्य रहते हैं. दिल्ली से गुड़गाँव जाने के रास्ते में घिटोरनी के पास ज़मीन के नीचे जमा पानी और नाले की सफ़ाई के लिए उतरे ये चार लोग ज़िंदा बाहर नहीं लौट सके. अस्पताल ले जाने पर डॉक्टरों ने उन्हें ‘ब्रॉट डेड’ घोषित किया यानी बता दिया कि अस्पताल में उन्हें मुर्दा हालत में ही लाया गया था.
अख़बारों की ख़बरों के मुताबिक़ इनमें से दक्षिण दिल्ली के छतरपुर की आंबेडकर कॉलोनी में रहते थे और बाक़ी दो के पास अपनी छत भी नहीं थी. ये दोनों रैन बसेरे में रहते थे.
सैप्टिक टैंकों से उफनने वाली ज़हरीली गैस से मारे जाने वाले अधिकतर लोग आंबेडकर कॉलोनियों में ही रहते हैं — उन्हें आप शिप्रा रिवैयरा या गॉल्फ़ लिंक्स या ईस्ट-एंड जैसे नाम वाली जगहों में नहीं पाएँगे. और न ही गॉल्फ़ लिंक्स में रहने वाले लोग अथाह ग़रीबी के बीच बनाए अपने छोटे से नख़लिस्तान का नाम आंबेडकर बस्ती रखना चाहेंगे.
मौत का सिलसिला
ऐसे लोग सिर्फ़ एक अंडरवियर में — अधिकतर बार शराब पीकर — शहर के मैनहोलों और सैप्टिक टैंकों में हमारे शरीरों से निकले बजबजाते मल में गले गले तक उतरते हैं. वहाँ अंदर गहरा अंधेरा होता है, गंदगी की ज़हरीली बास होती है और थोड़ी सी असावधानी हुई तो मौत भी हो जाती है.
शनिवार की सुबह घिटोरनी में इन चार सफ़ाई कर्मचारियों की मौत हुई. इसी साल सात मार्च को बंगलौर के कग्गादास नगर के मैनहोल की ज़हरीली गैस में दम घुटने के कारण अनजनिया रेड्डी, येरैया और धवंती नायडू की मौत हुई.
पिछले साल एक मई यानी मज़दूर दिवस को हैदराबाद में एक मैनहोल साफ़ करते हुए वीरास्वामी और कोटैया का दम घुट गया. उससे पहले 2015 में दिल्ली के पास नोएडा में इसी तरह धरती के अंदर उतरकर मल साफ़ करने वाले अशरफ़, धान सिंह और प्रेम पाल की मौत हो गई.
शनिवार की शाम को घिटोरनी के मैनहोल में मारे गए सफ़ाई कर्मचारियों की मौत का ब्यौरा लिखते वक़्त मेरे सामने मानव मल को सभ्य भाषा में लिखने की एक सात्विक सी चुनौती आ खड़ी हुई है.
मैं लिखना चाहता हूँ वही अप्रकाशनीय शब्द जो मानव मल से जुड़े हर भाव – घृणा, जुगुप्सा, अपवित्रता और वितृष्णा को पढ़ने वाले तक पहुँचाता है. मल, गंदगी या (थोड़ा और संस्कृतनिष्ठ शब्द का प्रयोग करें तो) विष्ठा जैसे शब्द उस भाव को प्रकट नहीं करते.
मानव मल को साफ करते हाथ
लेकिन स्वर्ण सिंह, दीपू, अनिल और बलविंदर के सामने ऐसी कोई चुनौती नहीं रही होगी. मानव मल उनमें कोई जुगुप्सा या घृणा का भाव पैदा नहीं करता होगा क्योंकि वो उसकी व्याख्या नहीं करते थे बल्कि अपने दोनों हाथों से उसे साफ़ करते थे. ठीक वैसे ही जैसे मेरे बचपन में मेरा हमउम्र लड़का महबूब और उसकी वक़्त से पहले बूढ़ी दिखने वाली माँ किया करते थे.
वो दोनों डलिया और झाड़ू लेकर आते थे और हर घर का दरवाज़ा खटखटाकर ज़ोर से आवाज़ लगाते, “राख डाल दो!” घर के अंदर से कोई राख लेकर निकलता और दरवाज़े के बाहर गली में रख देता और दरवाज़ा बंद कर देता.
महबूब और उसकी माँ उस राख से मल को ढक कर साइकिल के मडगार्ड को मोड़कर बनाए गए एक पंजे से खींचकर अपनी डलिया में डालते. एक एक घर से मल इकट्ठा करके दोनों चले जाते थे — ऐसे जैसे कि हमारी ज़िंदगियों से ही चले गए हों.
पर वो दोपहर में नहा-धोकर लौटते और दरवाज़े-दरवाज़े जाकर आवाज़ लगाते — रोटी डाल दो. मोहल्लेदार जिस तरह से सुबह दरवाज़ा खोलकर राख डालते, उसी तरह रात की बची खुची बासी रोटी और साग महबूब और उसकी माँ की खुली हथेलियों में कुछ ऊपर से छोड़ देते और इस बात का ख़याल रखते कि ग़लती से भी कहीं उनसे छू न जाएँ.
इसके बाद फिर वो दोनों ग़ायब हो जाते और अगले दिन सुबह फिर पूरा मोहल्ला उनकी परिचित आवाज़ सुनता — राख डाल दो!
देशभक्ति के खाते में दर्ज मौत?
मुझे बहुत दिनों बाद पता चला कि महबूब और उसकी माँ मोहल्ले के मुअज़्ज़िज़ लोगों का मल उठाने के बाद शहर के बाहर एक गंदे नाले के पास बनी अपनी झुग्गी में चले जाते थे. वो उनकी अपनी दुनिया थी जिसमें उनके पालतू सूअर घूमते थे, पास ही झुग्गी में एक मैथडिस्ट चर्च बनाया गया था जहाँ वो मोहल्लेदारों के तिरस्कार से दूर ईसा मसीह की सुरक्षा में हर रविवार को प्रार्थना करते थे.
फिर मुझे नहीं मालूम कि बाद में वो कहाँ गए और उनका क्या हुआ. क्या उनका मैथडिस्ट चर्च अब भी सुरक्षित होगा? क्या महबूब के बच्चे अब भी वहाँ मोहल्लेदारों का मल साफ़ करने के बाद ईसा मसीह की हिफ़ाज़त में प्रार्थना करते होंगे? या बदलते भारत ने उन्हें भी अपने साथ लिया होगा और वो भी किसी शिप्रा रिवैयरा, किसी ईस्ट-एंड अपार्टमेंट्स या क़ुतुब व्यू अपार्टमेंट्स में रह रहे होंगे?
या फिर वो उत्तराखंड की तराई से निकल कर दिल्ली या किसी दूसरे शहर की किसी आंबेडकर बस्ती में झुग्गी डालकर रह रहे होंगे जहाँ उनकी उपयोगिता तब महसूस होती होगी जब किसी पॉश कॉलोनी का सीवर बजबजाने लगता हो या फिर सैप्टिक टैंक में भरा हुआ मानव मल मध्यवर्गीय सभ्यता को मलिन किए दे रहा हो?
अगर उनमें से कोई मैनहोल के गीले और बदबूदार अँधरों में दम तोड़ दे तो क्या उसकी मौत देशभक्ति के खाते में दर्ज की जाएगी?