मायावती के खिलाफ उठे बगावत के सुर, ख़त्म हो रही बसपा

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उत्तर प्रदेश चुनाव के एक महीने के अंदर बसपा प्रमुख मायावती के खिलाफ बगावत के सुर फूटने लगे हैं। यूपी विधान सभा चुनाव में पार्टी केवल 19 सीटें जीत सकी थी। पार्टी के कई नेता पार्टी प्रमुख मायावती की इस दलील से असहमत हैं कि बसपा की ये दुर्गति ईवीएम मशीन में गड़बड़ी की वजह से हुई है। ऐसे नेता चाहते हैं कि विधान सभा चुनाव में मिली शर्मनाक हार की जिम्मेदारी तय की जाए। ये नेता सवाल पूछ रहे हैं कि चुनाव के नतीजे आने के एक महीने बाद भी अभी तक इस बाबत एक भी बदलाव क्यों नहीं किया गया है?

साल 2012, 2014 और 2017 में लगातार तीन चुनावों में बसपा को मिली हार के बाद पार्टी के पुराने नेता मायावती के बहुजन के समीकरण को छोड़कर सर्वजन (खासकर ब्राह्मण) को पार्टी से जोड़ने की रणनीति पर भी सवाल उठा रहे हैं। बहुजन के तहत पार्टी मुख्यतः दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और मुस्लिम वोटों पर निर्भर रहती थी। पार्टी की रणनीति की आलोचना करने वाले नेताओं के अनुसार मायावती ने ओबीसी को “पूरी तरह नजरअंदाज” कर दिया जो लंबे समय से पार्टी से जुड़े हुए थे।

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मायावती से नाराजगी की असर अब बाहर दिखने लगा है। 15 मार्च को बसपा के संस्थापक कांशी राम की जयंती पर उनके लखनऊ स्थित स्मारक स्थल पर केवल कुछ दर्जन लोग ही मौजूद थे। पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद मायावती की किसी भी सभा की तुलना में ये शायद सबसे कम भीड़ वाली सभा थी।

पूर्व मंत्री और दलित नेता कमला कांत गौतम ने बीआर आंबेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर 13 अप्रैल को लखनऊ में एक जनसभा की घोषणा की है। गौतम एक नए राजनीतिक धड़े की घोषणा करने वाले जिसमें मायावती द्वारा “किनारे किए गए” नेता एक छतरी के नीचे आएंगे। लखनऊ, कानपुर, और इलाहाबाद में कई बसपा कार्यकर्ताओं ने इस्तीफा दे दिया है। गौतम यूपी चुनाव के नतीजे आने से पहले पार्टी की बिहार इकाई के प्रमुख थे। गौतम कहते हैं, “बसपा कार्यकर्ताओं में नाराजगी है। वो पूछ रहे हैं ओबीसी नेताओं की अनदेखी क्यों की जा रही है और कांशी राम साहब के विचारधारा को बर्बाद क्यों किया जा रहा है। मायावती की मुश्किल ये है कि जिन नेताओं के पास अपना जनाधार है वो उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पातीं। कांशी राम ने इस बहुजन समाज के निर्माण में सालों खर्च किए और बसपा को 13 साल में राष्ट्रीय पार्टी बना दिया। मायावती ने उनकी मेहनत पर पानी फेर दिया। मुझे उम्मीद है कि करीब 10 हजार कार्यकर्ता जनसभा में आएंगे और हम बसपा से अलग नई राजनीति दिशा तय करेंगे।”

बसपा के कई नेताओं का आरोप है कि मायावती ने पार्टी को बहुजन समाज की पार्टी के बजाय जाटव पार्टी में बदल दिया है। पार्टी के नेता गंगाराम आंबेडकर कहते हैं, “हमारी पार्टी में कुर्मी, कुशवाहा, निषाद, कश्यप, बिंद, कुम्हार  जैसी ओबीसी जातियों और बाल्मीकि, कोरी, धोबी, खटिक जैसी दलित जातियों से कोई नेता नहीं है। क्यों? बहनजी कुछ लोगों से घिर गई हैं जो उन्हें बरगला रहे हैं।” जब मायावती मुख्यमंत्री थीं तो गंगाराम उनके ओसएडी (ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) थे। गंगाराम अब गौतम के साथ हैं।

बसपा के पूर्व सांसद प्रमोद कुरील भी मायावती के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। कुरील का आरोप है कि मायावती ने दलित उप-जातियों की अनदेखी की है जिसकी वजह से वो भाजपा के साथ चली गईं। ब्राह्मण नेता सतीश मिश्रा को मिल रही तवज्जो पर तंज कसते हुए कुरील बसपा को “माया मिश्रा एंड कंपनी” कहते हैं।

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बसपा के एक वरिष्ठ ओबीसी नेता नाम न देने की शर्त पर कहते हैं, “अनंत मिश्रा पार्टी में बने रहते हैं लेकिन बाबू सिंह कुशवाहा निकाल दिए जाते हैं। कुशवाहा ने अपनी जिंदगी पार्टी को दे दी थी।” अनंत मिश्रा सतीश मिश्रा के रिश्तेदार हैं। अनंत और बाबू सिंह कुशवाहा दोनों ही मायावती के मुख्यमंत्री काल में हुए करोड़ों के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) घोटाले में आरोपी हैं।

पार्टी के कई नेता और दलित चिंतक मायावती द्वारा 100 मुस्लिम उम्मीदवार उतारने पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं। बसपा द्वारा उतारे गए 100 में से केवल 5 मुस्लिम उम्मीदवार जीत सके। बसपा के एक संयोजक कहते हैं, “अभी पार्टी में 19 विधायक हैं और हमें नहीं पता कि इनमें से कितने अगले पांच साल में बचेंगे।” गौतम कहते हैं, “15 मार्च को कांशी राम स्मारक स्थल पर करीब 80 लोग ही थे। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। जिस ईवीएम से बसपा को 2007 में206 सीटें आईं उस पर दोष कैसे मढ़ा जा सकता है?”

मायावती के करीबी माने जाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीकी, राम अचल रामभर और रामवीर उपाध्याय जैसे नेताओं के खिलाफ राज्य सतर्कता आयोग में मामले चल रहे हैं। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उपाध्याय उनसे मिले थे। नए सीएम से निजी तौर पर मिलने वाले वो पहले बसपा विधायक हैं।

2014 के लोक सभा चुनाव में एक भी सीट न जीते पाने और वोट प्रतिशत 20 से भी कम हो जाने के बाद मायावती ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी से दूर जा रहे जाटव नेताओं को जोड़े रखने के लिए इस जाति पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया। माना जाता है कि जाटव पार्टी की रीढ़ की हड्डी हैं। पार्टी के चार राज्य सभा सांसदों में से तीन जाटव हैं। सतीश चंद्र मिश्रा को छोड़कर बसपा के ज्यादातर एमएलसी, जिला संयोजक और अध्यक्ष जाटव हैं। साथ ही पार्टी के राज्य इकाई के अध्यक्ष राजभर को किनारे कर दिया गया। पिछले साल जून में जब स्वामी प्रसाद मौर्य ने पार्टी छोड़ दी थी मायावती ने मौर्य की जगह गया जाटव नेता चरण दिनकर को विधान सभा में नेता विपक्ष बनाया था।

ऐसा नहीं है कि मायावती कोई भी कोशिश नहीं कर रही हैं। एक हफ्ते पहले ही बुंदेलखंड के चित्रकूट जिले के दलित नेता दद्दू प्रसाद को पार्टी में वापस शामिल किया गया। मायावती ने 2015 में उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधियों के लिए पार्टी से निकाल दिया था।  मायावती ने विधान सभा में ओबीसी नेता और विधायक लालजी वर्मा को सदन में पार्टी का नेता नियुक्त किया है। लेकिन बसपा के ज्यादातर कार्यकर्ता निराश नजर आ रहे हैं। अगले साल मायावती अपनी राज्य सभा सदस्यता खो सकती हैं। पार्टी के पूर्व सांसद बलिराम मानते हैं कि पार्टी को आत्मविश्लेषण की जरूरत है।

श्रोत जनसत्ता

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